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ईरान और इज़राइल के बीच संघर्ष के कारण: एक विस्तृत विश्लेषण
परिचय
ईरान और इज़राइल के बीच का संघर्ष मध्य पूर्व के सबसे जटिल और संवेदनशील मुद्दों में से एक है। यह संघर्ष ऐतिहासिक, राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य कारकों का मिश्रण है, जो दशकों से क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता को प्रभावित करता रहा है। 1979 की ईरान की इस्लामी क्रांति से लेकर 2025 के हालिया सैन्य टकराव तक, दोनों देशों के बीच तनाव लगातार बढ़ा है। यह लेख उन प्रमुख कारणों की पड़ताल करता है जो इस संघर्ष को प्रेरित करते हैं, साथ ही इसके ऐतिहासिक संदर्भ, वर्तमान स्थिति और भविष्य की संभावनाओं पर प्रकाश डालता है। यह लेख SEO के लिए अनुकूलित है, जिसमें कीवर्ड जैसे “ईरान-इजराइल संघर्ष,” “परमाणु कार्यक्रम,” और “प्रॉक्सी युद्ध” शामिल हैं, ताकि पाठकों को जानकारी आसानी से मिल सके।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ईरान और इज़राइल के बीच संबंधों का इतिहास प्राचीन काल से शुरू होता है, जब दोनों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे। 1947 में संयुक्त राष्ट्र के फिलिस्तीन विभाजन प्रस्ताव के समय, ईरान ने इसके खिलाफ मतदान किया था, लेकिन 1950 में ईरान की शाही सरकार ने इज़राइल को मान्यता दी। यह निर्णय अमेरिका में यहूदी लॉबी के प्रभाव और अरब देशों के साथ तनावपूर्ण संबंधों के कारण लिया गया था। 1953 में अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा समर्थित तख्तापलट के बाद, ईरान और इज़राइल के बीच तेल सौदों सहित सहयोग बढ़ा। 1957 में, ईरान ने इज़राइल को प्रति बैरल 1.30 डॉलर में तेल बेचना शुरू किया, और 1971 तक यह आपूर्ति 55,000 बैरल प्रतिदिन तक पहुँच गई।
हालांकि, 1979 की इस्लामी क्रांति ने सब कुछ बदल दिया। ईरान की नई इस्लामी सरकार ने इज़राइल को मान्यता देना बंद कर दिया और फिलिस्तीनियों का समर्थन शुरू किया। क्रांति के एक सप्ताह बाद, यासर अराफात ने तेहरान का दौरा किया, और पूर्व इज़राइली दूतावास को फिलिस्तीनी दूतावास में बदल दिया गया। इस बदलाव ने दोनों देशों के बीच शत्रुता की नींव रखी।
ईरान का इज़राइल-विरोधी समूहों का समर्थन
ईरान ने 1982 के लेबनान युद्ध के दौरान से ही हिज़्बुल्लाह जैसे समूहों को हथियार, प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता प्रदान की है। इसके अलावा, ईरान ने हमास और फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद जैसे फिलिस्तीनी समूहों को भी समर्थन दिया है। उदाहरण के लिए, 2006 से ईरान हमास को प्रतिवर्ष लगभग 20 मिलियन डॉलर की सहायता देता है। ये समूह इज़राइल पर नियमित हमले करते हैं, जैसे कि 2006 का इज़राइल-हिज़्बुल्लाह युद्ध और गाजा में कई संघर्ष। ईरान का यह समर्थन न केवल इज़राइल के लिए खतरा है, बल्कि यह मध्य पूर्व में सुन्नी और अरब देशों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की रणनीति का हिस्सा भी है।
इज़राइल की ईरान को खतरा मानने की धारणा
इज़राइल ईरान को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा मानता है, विशेष रूप से इसके परमाणु कार्यक्रम के कारण। इज़राइल और कई पश्चिमी देशों का मानना है कि ईरान परमाणु हथियार विकसित कर रहा है, हालांकि ईरान का दावा है कि उसका कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। इज़राइल ने ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या और साइबर हमलों जैसे स्टक्सनेट के माध्यम से इस कार्यक्रम को बाधित करने की कोशिश की है। इसके अलावा, ईरान का सीरिया, लेबनान और यमन में बढ़ता प्रभाव इज़राइल के लिए चिंता का विषय है, क्योंकि यह इज़राइल की सीमाओं के पास ईरानी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाता है।
भू-राजनीतिक परिवर्तन
शीत युद्ध के अंत और 1991 के खाड़ी युद्ध ने मध्य पूर्व की भू-राजनीति को बदल दिया। सोवियत संघ के विघटन और इराक की कमजोरी ने ईरान और इज़राइल के बीच साझा खतरों को कम कर दिया, जिससे उनके संबंध और तनावपूर्ण हो गए। 1990 के दशक में इज़राइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़हाक राबिन ने ईरान के प्रति अधिक आक्रामक रुख अपनाया, जबकि ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने इज़राइल के खिलाफ भड़काऊ बयान दिए। इन परिवर्तनों ने दोनों देशों के बीच शत्रुता को और गहरा किया।
हालिया सैन्य टकराव
2024 और 2025 में ईरान और इज़राइल के बीच तनाव चरम पर पहुँच गया। अप्रैल 2024 में, दमिश्क में ईरान के वाणिज्य दूतावास पर एक हवाई हमले में 13 लोग मारे गए, जिसमें ईरान के कुद्स फोर्स के ब्रिगेडियर जनरल मोहम्मद रेजा जाहेदी शामिल थे। ईरान ने इस हमले के लिए इज़राइल को जिम्मेदार ठहराया और जवाबी हमले किए। 13 जून 2025 को, इज़राइल ने “ऑपरेशन राइजिंग लायन” के तहत ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर बड़े पैमाने पर हमले किए, जिसके जवाब में ईरान ने “ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस III” के तहत मिसाइल और ड्रोन हमले किए। इन हमलों में दोनों पक्षों में नागरिक हताहत हुए, और क्षेत्रीय युद्ध का खतरा बढ़ गया।
घटना | तारीख | विवरण |
---|---|---|
दमिश्क हमला | अप्रैल 2024 | ईरान के वाणिज्य दूतावास पर हमला, 13 मरे। |
ऑपरेशन राइजिंग लायन | 13 जून 2025 | इज़राइल ने ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर हमला किया। |
ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस III | 13 जून 2025 | ईरान ने इज़राइल पर मिसाइल और ड्रोन हमले किए। |
सैन्य ताकत की तुलना
ईरान और इज़राइल दोनों सैन्य रूप से शक्तिशाली हैं, लेकिन उनकी ताकत अलग-अलग क्षेत्रों में है। नीचे दी गई तालिका उनकी सैन्य क्षमताओं की तुलना करती है:
पहलू | ईरान | इज़राइल |
---|---|---|
सक्रिय सैन्य कर्मी | 610,000 | 169,500 |
रिजर्व सैन्य कर्मी | 350,000 | 465,000 |
रक्षा बजट | $6.85–10 बिलियन | $24.4–30.5 बिलियन (प्लस $3.8 बिलियन अमेरिकी सहायता) |
वायु सेना | 551 विमान (ज्यादातर पुराने सोवियत/चीनी डिज़ाइन) | 340 आधुनिक लड़ाकू विमान (F-16, F-35) |
मिसाइल और ड्रोन | सेजिल मिसाइल (2,000 किमी रेंज), खोरदाद 15 वायु रक्षा | आयरन डोम, डेविड्स स्लिंग, एरो-3 |
परमाणु क्षमता | विकास में, इज़राइली हमलों से प्रभावित | 80–90 परमाणु बम |
ईरान की ताकत उसकी मिसाइल और ड्रोन क्षमताओं में है, जबकि इज़राइल की उन्नत वायु रक्षा प्रणालियाँ और परमाणु हथियार उसे रणनीतिक बढ़त देते हैं।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ
इस संघर्ष ने वैश्विक चिंता बढ़ा दी है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जॉर्डन ने इज़राइल की रक्षा में ईरानी ड्रोनों को रोका है। G7 नेताओं ने जून 2025 में इस मुद्दे पर चर्चा की, जिसमें डी-एस्केलेशन की माँग की गई। हालांकि, ईरान ने मध्यस्थों को बताया कि वह इज़राइली हमलों के बीच युद्धविराम पर बातचीत के लिए तैयार नहीं है।
निष्कर्ष
ईरान और इज़राइल के बीच का संघर्ष ऐतिहासिक, धार्मिक और भू-राजनीतिक कारकों का परिणाम है। 1979 की इस्लामी क्रांति, ईरान का प्रॉक्सी समूहों का समर्थन, इज़राइल की परमाणु चिंताएँ और हालिया सैन्य टकराव इस संघर्ष के प्रमुख कारण हैं। यह संघर्ष न केवल मध्य पूर्व, बल्कि वैश्विक स्थिरता के लिए भी खतरा है। भविष्य में, कूटनीतिक बातचीत और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता ही इस तनाव को कम कर सकती है।