एक शाम मेरा छोटा भाई एक गौरैया का बच्चा गिरगिटों के चंगुल से बचा कर घर ले आया। अभी उसकी आंखें खुली ही थी।। उसने अभी-अभी इस दुनिया का साक्षात्कार किया था और शायद इस निष्कर्ष पर पहुंचा होगा कि यह दुनिया रणभूमि है, पग पग पर यहां युद्ध लड़ना होगा, पृथ्वी पर अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए, अपने अस्तित्व के लिए, अपने उदर की ज्वाला को भस्म करने के लिए भी, इसके लिए उसे शक्तिशाली बनना होगा, खुद में सामर्थ्य भरनी होगी, अपने पंखों के उगने का इंतजार करना होगा, उनकी धार को तेज करना होगा।
किंतु अभी वह छोटा सा प्राणी क्या करता, कैसे मुकाबला करता। मांस पिंड उन गिरगिटों से जो उसके चारों और उसे नोच कर खा जाने हेतु मचल रहे थे। भाग्य वह उसको जीवन प्राप्त हुआ। वह उन दुष्टो के चंगुल से बचा लिया गया। घर लाया गया। बहुत व्याकुल था।
अपने चारों और नए अपरिचित प्राणियों को देखकर भयभीत था। बार-बार अपने करो आवाज से अपनी मां को पुकार रहा था किंतु अब उसकी मां कहां मिलने वाली थी। शायद भूखा भी था। कुछ पद के उसके पास जैसे लेकर जाते अपनी गर्दन लंबी करके आवाज करता। पहले तो प्रश्न यह आया कि खाएगा क्या, दूसरा प्रश्न कैसे खाएगा।
दूध लाया गया और रूई को डुबोकर उसके मुंह से लगाया गया किंतु उसे इस तरह दुग्ध ग्रहण करने का अभ्यास नहीं था, एक पल के लिए लगा तो रुई को ही निगल जाएगा। इसलिए रुई को किसी तरह से मुंह से बाहर खींचा गया और वह भी साथ में ऊपर तक हवा में लहरा गया। इस प्रकार से खाने वाला और खिलाने वाला दोनों ही नए थे।
दूसरा प्रयास किया गया चम्मच के माध्यम से, अब वह भी समझ रहा था कुछ, उसने अपनी गर्दन लम्बी करके चोंच खोल दी और उसमें दूध की कुछ बूंदे डाल दी गई।।इसी प्रकार उसका खाना-पीना प्रारंभ हुआ। अब जो भी उसके योग्य समझा जाता उसे दिया जाता रहा।।उसके छोटे छोटे पंख आने लगे थे। थोड़ी उछल कूद करने लगा था।गमले में एक रातरानी का पौधा लगा था उसके डाल पर थोड़ी ऊंचाई पर उसे बैठा दिया जाता। वहीं पर बैठे बैठे टुकुर टुकुर देखते हुए सुबह के उगते हुए सूरज से आती क्यों ना और बहती हुई शीतल पवन का आनंद लिया करता था।
कुछ दिनों तक उसका सुबह एवं शाम का पता वही था। अब पिताजी भी उसको अपने साथ-साथ लिए रहते थे। जब वह अपने घोसले में चुपचाप बैठा होता तो उसे छेड़ते और जब खाना खाने बैठे थे तो वह भी उनके आसपास घूमता रहता। मेरे घर से कुछ ही दूरी पर एक खाली प्लाट पड़ा था जिसे खूब सारे पेड़ पौधों से सवार कर बगीचा नुमा बना दिया गया था।
वहीं से इस अबोध शिशु को प्राप्त किया गया था। भांजी अन्याय प्लाट को छोटा पार्क कहती थी। पिताजी का छुट्टी का अधिकांश दिन इसी छोटा पार्क में गुजरता था। पिताजी और मां जब वहां पर जाते तो उसे भी साथ ले जाते। वहां पर उस बच्चे के लिए पेड़ पौधे और तमाम तरह की रंग बिरंगी चिड़िया को सुख का विषय बनती थी. कुछ समजाती चिड़िया उसे दूर दूर से देखने आती, उसके पास बैठती।
बच्चे को पता नहीं था कि वह अपनी प्रतिक्रिया उनके प्रति किस प्रकार दे। वह अपनी बड़ी सी चोंच खोल कर उनके पास जाता तो अन्य चिड़िया उछलकर दूर बैठ जाती। कुछ तो उसके मुंह में दाना डाल जाती। शायद उसकी अपनी मां के साथ की अंतिम स्मृति यही शेष थी कि जैसे मां आएगी अपने उदर पूर्ति हेतु चोंच को ऊपर करके फैला देना है चो चो करना है। यही अन्य चिड़ियों के लिए उसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया बन गई थी।
गुनगुन हां यही नाम दिया था मैंने और मेरे परिवार ने उसे एक एक शाम,अब वह पंखों को खोलने लगा था। उड़ने लगा था। वह ढलिया जिसे घास फुस से भर कर उसका घर निर्धारित किया गया था, उस पर अधिक नहीं टिकता था।
एक सुबह तो लगा कि कहीं उड़ गया लेकिन थोड़ा नजरें दौड़ाने पर पता चला कि सामने वाले घर की मुंडेर पर जा बैठा है। एक शाम ऐसे ही गुनगुन भाई के साथ अठखेलियां कर रहा था। रात हो गई थी, गुनगुन के सोने का समय था किंतु उसे नींद नहीं आ रही थी, वाह भाई के हाथ से उछल कर बाहर सड़क पर जा बैठा।
इस बात से अनजान कि अगले पल उसके साथ क्या होने वाला था। अभी तक उसने सभी की आत्मीयता का अनुभव ही किया था। इसलिए संकट आने पर अपने बचाव के तरीके नहीं सीख सका था।
उस रात बाहर जाने के बाद वह फिर से वापस नहीं लाया जा सका। खोज करने पर देखा गया कि एक बिल्ली कार के नीचे बैठी थी। यह वही बिल्ली थी जिसने गुनगुन को ले जाने के इसके पहले भी कई असफल प्रयास किए थे। हम सभी कुछ समय तक किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे। होनी को कौन टाल सका है। हमारा और गुनगुन का साथ इतने ही दिनों का था। अफसोस कि वह विस्तृत आकाश में उड़ने से पहले ही शून्य में विलीन हो गया।
आज सुबह एक गौरैया को अपने बरामदे में फुदकते हुए देखा तो लगा कि कहीं यह वही गुनगुन तो नहीं।
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